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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी

अंगूठी की खोजः
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नौकर ने मुझे भारी आवाज और दुःख मिश्रित स्वर में पुकारकर कहा-ठहरो भैया! कहां जाते हो? तुम्हें बाबूजी ने जल्दी बुलाया है।

मेरे पैरों के नीचे से जैसे धरती खिसक गई | नवल ने आते ही मुझे क्‍यों बुलाया ? क्या वृजांगना ने उनके आते ही...मेरी समझ में कुछ न आया। फिर भी अपने को बहुत संभालकर मैंने भीखू से पूछा, इसी समय बुलाया है? क्‍या कोई बहुत जरूरी काम है?

बूढ़ा नौकर रो पड़ा । रोते-रोते बोला, जरूरी काम क्या है भैया, बहू जी की तबीयत बहुत गाफिल है। संझा को अच्छी भली सोई थीं और अब तो भगवान जो उठा के खड़ी करें तो खड़ी हों। नहीं तो कुछ आशा नहीं दिखती ।

मुझे चक्‍कर-सा आने लगा। भीखू के साथ उसी समय नवल के घर की ओर चला, रात जिस घर में फिर कभी न जाने की प्रतिज्ञा करके निकला था, उसी घर की ओर फिर विक्षिप्तों की तरह चल पड़ा। आह! किंतु वहां तो मेरे पहुंचने के पहले ही सब कुछ समाप्त हो चुका था। नवलकिशोर बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो रहे थे।

उसका कंचन-सा शरीर चिता पर धर दिया गया। आग लगा दी गई और वह धू-धू करके जल उठी। हमारे देखते-ही-देखते उसका सोने का शरीर राख में मिल गया। इसी प्रकार मुझे भी जीते ही जला देना चाहिए। इस हरी-भरी छोटी-सी गृहस्थी को बीहड़ बनानेवाला नर-पिशाच तो मैं ही हूं न! मैं किस आग में जल रहा था इसे मेरे सिवा और कौन समझ सकता था?

सब लोगों के चले जाने के बाद बची-खुची राख को समेटकर उसी समय मैंने वह नगर छोड़ दिया। उसी राख को यहाँ रखकर मैंने उसकी समाधि बना ली है और न जाने कितनी चैती पूर्णिमा उस समाधि को पश्चात्ताप के आँसुओं से धोते हुए मैंने बिता दी हैं। पश्चात्ताप अभी तक पूरा नहीं हुआ। मैं रात-दिन जलता हूँ। एक सुंदर से फूल को धूल में मिलाने का पाप मेरे सिर पर सवार है।

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